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सतरंगी छटा बिखेरती हुई सुकोमल कविताएँ

Posted on: Sun, 13, Jan 2019 1:06 PM (IST)
सतरंगी छटा बिखेरती हुई सुकोमल कविताएँ

पुस्तक समीक्षाः लोक जिसे कविता कहता है, एक समांगी मिश्रण है -वैयक्तिक पीड़ा, सामाजिक विसंगतियों और भविष्य की परिकल्पनाओं का। वास्तव में संवेदनशील हृदय में ही कविता के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं जबकि संवेदनहीनता से कविता का कोई नाता नहीं। हाँ, यह कविता ही है जो जीवन में सोमरस घोलती है, बंगाली जादू की तरह सिर पर चढ़कर बोलती है। कविता पत्थर को भी पिघलाकर मोम बना देने की सामर्थ्य रखती है। इतना ही नहीं, कविता ने समाय की तीव्र धारा तक को मोड़ा है और दिग्भ्रमित मानव को सद्भावनाओं से जोड़ा है। जो भी कविता लिखे शर्त है कि कविता जैसा ही दिखे। यही कविता कि भव्यता है, यही कविता कि सार्थकता है। कविता समूचे परिवेश को आँचल में समाहित कर आगे को बढ़ती है तथा नए-नए प्रतिमान गढ़ती है।

मुझे खुशी है कि डॉ. बीना राघव ने ‘काव्य के सप्तरंग’ के जरिये हिंदी काव्य जगत में कदम रखा है। प्रस्तुत कृति कई मायने में लीक से हटकर कही जाएगी क्योंकि इसमें काव्य की सात विधाओं (छंदमुक्त कविता, दोहे, मुक्तक, हाइकु, ताँका, गीत, गज़ल) की सरस रचनाओं से पाठकों को सराबोर करने का सद्प्रयास हुआ है जो कवयित्री के गहन चिंतन, मनन व अनुभव की सुखद परिणति है। कवयित्री ने अपने जीवन में देखा है, भोगा है और दूसरों के दर्द को महसूस कर सोचा है, उसे ही इन रचनाओं में परोसा है। इन कविताओं का फ़लक अत्यंत विस्तृत है। पाठक कृति से जो अपेक्षा करते हैं, पाएँगे। ‘काव्य के सप्तरंग’ की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इसमें प्रत्येक विधा की रचनाओं के पूर्व उसका व्याकरण (छंद शास्त्र) भी दिया गया है जो नवोदित रचनाकारों के लिए उपयोगी होगा।

कृति के प्रथम खंड ‘छंदमुक्त कविताएँ’ में दो प्रकार की कविताएँ रखीं गईं हैं- 1. दीर्घ कविताएँ 2. लघु कविताएँ। जहाँ तक दीर्घ या लंबी कविताओं का प्रश्न है, इनमें भावभिव्यक्ति अपने शिखर पर पहुँची है। इनमें कहन का अनूठा तरीका है, मोहक शिल्प है और ग्राह्य अनुशासन भी भी मौजूद है। इनकी कुल संख्या पैंतीस है। जिन विषयों को कविताओं में छुआ गया है, उनमें प्रमुख हैं दृ खाली हाथ, महाराणा प्रताप, तिरंगा, पिता-पुत्री संबंध, कलंकित मानवता, रामराज्य की परिकल्पना, निसर्ग मही, शीतल बयार, प्रकृति-सुंदरी, अहसास की थाती, मित्रता का बाजारवाद, बहुरूपिया जीवन, चमचागीरी, कालधन, डायरी, सशक्त बेटियाँ, भक्ति की शक्ति, नारी- कल और आज, वक्त के बदलते अंदाज़, बेटियाँ, अखबार, इंसानियत, भ्रष्ट -तंत्र, मदिरापान, भोर का सूरज, हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी, बाल मजदूरी, ईश वंदना, जननायक अटल बिहारी बाजपेई, गणतन्त्र आदि।‘ अहसासों के दर्द’ नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए-

यादों के संदूक से निकले, पन्ने  डायरी  के  सर्द। सूखे चिनार के पत्तों- से, खड़ख़ड़ाए फिर से अहसासों के दर्द। नर्म धूप -सा स्वेटर

कुछ उधड़ चला है, कोई फंदा बंधन का, कहीं छूट गया है। दूसरी ओर पीड़ा, कविता, शब्द, मन, ज़िंदगी, याद, अहसास, अकेलापन, आपसी-प्रेम, रिश्ते, सफलता, उड़ान, विछोह, चलने का हुनर, चाहत, मंचीय लोग, बचपन, बँटवारे का दर्द, नजरिया, डिग्रियाँ, ज़िंदगी आदि भावों को मुखरित करने वाली 52 लघु कविताएँ (क्षणिकाएँ) भी इसी खंड का हिस्सा बनी हैं। एक लघु कविता की बानगी प्रस्तुत है-

बेवफ़ाई की ज़मीन पर, बो दिए तुमने सन्नाटे, अब लफ़्जों का बौर आए कैसे? आ भी गया तो बौर पकने का धैर्य, है तुम्हारे पास? कृति का दूसरा खंड है। दोहे। दोहे की दो पंक्तियों में जीवन की समग्रता के संपूर्ण दर्शन संभाव्य हैं। यहाँ भी ऐसा ही है। ‘विनय’, ‘बेटी’, ‘गर्मी’, ‘सर्दी’, ’पर्यावरण’, ‘माँ’, ‘नारी’, ‘जीवन-दर्शन’, ‘योग’, ‘त्योहार’ तथा ‘अन्य’ जैसे 11 शीर्षकों के अंतर्गत 251 दोहों को रखा गया है। माँ ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। कहते हैं कि ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं रहता अतः उसने माँ बना दी। ‘माँ’ की महिमा का गुणगान करते हुए दो दोहे दृष्टव्य हैं।

कुंदन मात बना दिया, देकर अपना प्यार। हृदय कमल खिलता रहा, तेरे नीर दुलार॥ दो दोहे ‘जीवन दर्शन’ शीर्षक से देखिए जिनमें कवियित्री का जीवन दर्शन समाहित है। दूसरों को देखने का उसका अपना पृथक नज़रिया है जो लेखनी की ताकत है।

सृजन गंग कैसे बहे, अटा पड़ा हर घाट। है पहरा सैयाद का, पंछी जोहे बाट॥ तीसरे खंड का नामकरण है ‘मुक्तक’। ‘अनुनय’, ‘माँ, ‘जवान’, वतन, नारी, धरती व अन्य जैसे सात शीर्षकों के माध्यम से 101 मुक्तक कृति की धरोहर हैं। चार पंक्तियों वाले मुक्तक में ऐसी चुटीली बात कह दी जाती है जो एक लंबी कविता भी बयान नहीं कर पाती है। इन मुक्तकों में जीवंतता है जो थके-हरे मानव में जीवनी का संचार करती है। दर्द के दस्तावेज़ से परिचय करवाता हुआ एक मुक्तक ‘अन्य’ शीर्षकाधीन है, देखिए-

आँख से गिराया तो होगा कभी, दिल में समाया तो होगा कभी, दर्द से रिश्ता है सभी का यारो, मन तुला तुलाया तो होगा कभी॥ ज़िंदगी एक पहेली है, सुख-दुख की सहेली है। ज़िंदगी के कैनवास पर रंग उकेरता है यह मुक्तक। हादसों को जाने क्यूँ पाला है गमों का फूटा कहीं छाला है, ज़िंदगी हमें तुझ पर एतबार है, निकलेगी, तम ने पहरा डाला है॥ ‘हाइकु’ कृति का चौथा खंड है। 5-7-5 वर्णों में इस जापानी विधा ने भारतीय साहित्यकारों को खूब लुभाया है, तभी तो अनेक कवि? कवयित्रियों ने इसे अपनाया है। डॉ. बीना राघव ने भी अपनी कृति में भिन्न-भिन्न विषयों पर 125 हाइकु दिए हैं। इन हाइकुओं में प्रेम, ईश-भक्ति, प्रकृति, नारी वेदना, गुरु-महिमा, साहित्यकार, रिश्ते-नाते, शब्द की शक्ति, दाम्पत्य- प्रेम, रूमानियत, कर्म के बीज, खुशी के आँसू, महठगनी माया, मातृ-दिवस, बड़बोले नयन, बुढ़ापा, सावन व अपनापन आदि के भावों की गंगा प्रवाहमान है। देखिए-

प्रेम की धारा, बहे जिस दिल में, चर्चा हरसूँ। शब्दों की धार, धूल चटाए खार, है तलवार। पौधरोपण प्रकृति संरक्षण व जीवन। पाँचवाँ खंड है -‘ताँका’। यह विधा भी जापान से भारत में आई है। 31 वर्णों वाले ताँका में पूरी कविता के ही दर्शन हो जाते हैं। कवयित्री ने अलग-अलग विषयों पर 15 ताँका इस कृति में रखे हैं। कुछ उदाहरण हैं-

दो जून रोटी, भार सिर पे ढोती, ना सिर छत, रास्तों पे पड़ी सोती, मज़दूर किस्मत। बिचौलिए ने सब अन्न पचाया, किसान भूखा आमरण आमदा, पालनहार मरा। सेना लाचार, सहे पत्थरबाज़, करो विचार, कहाँ हैं अधिकार, मानवता सोई है।

छठे खंड ‘गीत’ में 11 गीत रखे हैं जिनके शीर्षक हैं- गंगा, विनती, मैरी कॉम, हम बच्चे, नारी पीड़ा, भारत माँ का हाल और नवगीत गाता हूँ मैं..। ‘नवगीत गाता हूँ मैं’ गीत देखिए-

नवगीत गाता हूँ मैं, गुनगुनाता हूँ मैं, अश्क आँखों के इस तरह छुपाता हूँ मैं। न हो बैरी यहाँ हर कोई मीत है, जो बीत गई सो अब रीत है, रीत के सब बंद छुड़ाता हूँ मैं। नवगीत गाता हूँ मैं.।। कृति का सातवाँ और अंतिम खंड है दृ ‘ग़ज़ल’। अन्य विधाओं की तरह यह भी एक लोकप्रिय विधा है। अनेक गायकों ने इसे आवाज़ प्रदान कर ऊँचाई दी है। उर्दू के अलावा हिन्दी कवियों ने भी खूब ग़ज़लें कही हैं। डॉ. बीना ने अपनी कृति में 11 ग़ज़लों को भी स्थान दिया है। एक ग़ज़ल की बानगी हाजिर है।

सच का सूरज धुँधलाया है, हृदय पुष्प फिर कुम्हलाया है। गैरों से उम्मीद करें क्या, अपनों से धोखा खाया है। उलझी पड़ी गुत्थियां युग से कहाँ पर्दाफाश हो पाया है। रौनक जमती नहीं नूर अब, उतर चेहरों का आया है। राम- राम मन करो दूर से सत्ता से दिल भर आया है।। इस प्रकार ‘काव्य के सप्तरंग’ डॉ. बीना की अनुपम कृति है जिसका प्रबल भावपक्ष एवं प्रभावी कलापक्ष इसे बेहतर बनाता है। सरल, सरस एवं रोचक भाषा- शैली, बिंबों का पुट, अलंकारों का बाहुल्य एवं संप्रेषणीयता का मिज़ाज कृति की उत्कृष्टता में आगे खड़ा दिखता है। भरी-भरकम शब्दों से परे भावों की गहनता प्र ध्यान फोकस किया गया है। कहीं-कहीं आँचलिक भाषा भी देखने को मिलती है। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी काव्य जगत में कृति का खुलेमन से स्वागत होगा तथा कवयित्री की रचनधर्मिता को भी संबल मिलेगा।

डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल

785 अशोक बिहार

गुरुग्राम (हरियाणा)-122006

दूरभाष- 9210456666

14 नवंबर, 2018


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