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जज़्बात को अल्फ़ाज़ों का लिबास पहनकर करीने से सजाने वाले शायर का नाम है शकील आज़मी

Posted on: Sun, 03, Jan 2021 4:47 PM (IST)
जज़्बात को अल्फ़ाज़ों का लिबास पहनकर करीने से सजाने वाले शायर का नाम है शकील आज़मी

मऊ (सईदुज्जफर) जज़्बात को अल्फाजों का लिबास पहनकर करीने से सजाने वाले शायर शकील आज़मी को न विरासत न कोई तालीम बावजूद इसके जब जिंदगी की पहली ग़ज़ल कागज पर उतारी तो वह मीटर में ही थी। जब जज्बात कागज पर उतारने का सिलसिला शुरू हुआ तो मां की मौत के बाद दुलार के लिए तरसता बचपन, मां से मिली बेरुखी, फरिश्ते की तरह नानी का लाड और कच्ची उम्र के इश्क की नाकामी सारे एहसास अशआर में कायम होते चले गए।

अपनी जिंदगी के कुछ ऐसे लम्हे शकील आज़मी ने आज अपने दोस्त डाक्टर खालिद ’भारत’ के साथ मऊ आने पर हमारे साथ साझा किया। चालीस से अधिक फिल्मों में गीत लिख चुके शकील आज़मी अपने दोस्तों सरफराज़ सिल्को, ज़की महफूज़, साजिद गुफरान, जमाल अर्पण, सईदुज़्ज़फर, इम्तियाज़ नोमानी, राशिद असरार के निमंत्रण पर रविवार को मऊ आए हुए थे शकील आज़मी ने मीडिया से बात करते हुए अपने जिंदगी के संघर्षों को साझा किया। शकील आज़मी ने बताया कि इनका बचपन आजमगढ़ के सहरिया गांव में बीता, वहां 4 साल का थे कि मां नहीं रही, पिता ने दूसरी शादी कर ली और फिर हालात ऐसे हुए की नानी मुझे अपने घर ले आई, नानी के घर भी सब कुछ ठीक नहीं था।

जब छठी क्लास में था तब भागकर मुंबई आ गया वहां नानी के रिश्तेदार रहते थे। वहीं से जिंदगी का संघर्ष शुरू हो गया पढ़ाई छूट गई, और सारे सबक हालात की यूनिवर्सिटी में ही पढ़े। मुंबई में रिश्तेदार ने एक टेलर की दुकान पर काम पर लगा दिया। लेकिन वहां झगड़ा हो गया तो वहां से भाग निकला और बड़ौदा पहुंच गया, बड़ौदा में ठेले पर कपड़े बेचने से दीवारों पर पेंटिंग से लेकर सुपारी काटने तक के काम किए। वहीं पर करीब 15 साल की उम्र में पहली ग़ज़ल लिखी और कैफी आज़मी की तरह मशहूर शायर और गीतकार बनने का ख्वाब देखने लगा। एक दोस्त के साथ बड़ौदा से सूरत आया दोस्त ने सुपारी के धंधे में पैसा लगाया और उसका पूरा काम मैं देखता।

दस साल सूरत में रहा और वही रहते हुए मेरे दो ग़ज़ल संग्रह भी आ गए। सन 2000 में 29 साल की उम्र में मुंबई आ गया यहां गोरेगांव की एक झोपड़ी पट्टी में एक दोस्त का हेयर कटिंग की दुकान और गैराज में रहने के ठिकाने थे। कोई कमरा तो था नहीं। दुकान के सामने बहुत से ऑटो रिक्शा खड़े रहते थे जिनके शीशे में दाढ़ी बनाता था। मुंबई में डायरेक्टर प्रोड्यूसर तनवीर खान की मदद से रूप कुमार राठौड़ से पहचान हुई जिन्हें मेरी गजलें बहुत पसंद आई पर उस वक्त वे संगीतकार नहीं बने थे। जल्द ही वह मौका आया। विजयपत सिंघानिया की प्रोड्यूसर की हुई फिल्म वो तेरा नाम था।

पहली बार मुझे गीत लिखने का और रूप कुमार राठौड़ को संगीत देने का मौका मिला। इस फिल्म के बाद भी मेरे पास कमरा नहीं था तो तनवीर खान ने मेरे लिए एक कमरा किराए पर लिया। इसके बाद इंद्र कुमार की फिल्म मदहोशी में मुझसे सभी छ गीत लिखवाए गए जिनका मेहनताना 60,000 रूपये मिला और फिर हालात ने करवट ली। महेश भट्ट के बैनर की फिल्मों से लेकर मुल्क और आर्टिकल फिफ्टीन से थप्पड़ तक सिलसिला जारी है। जब शायरी शुरू की तो सुपारी के धंधे से जो कमाता उससे उर्दू की पत्रिकाएं किताबें खरीदता पुराने उस्ताद शायरों के दीवाना लोगों से मांग कर पझ़ता या किसी लाइब्रेरी में पढ़ता। मैं मानता हूं कि अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना जरूरी है पर मैं जिन हालात से गुजरा हूं उसमें पढ़ना भी मुश्किल काम था।




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