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अन्नपूर्णा रसोई को कौन चलवा रहा है, समाजसेवी या जिला प्रशासन ?

Posted on: Sun, 17, May 2020 9:27 PM (IST)
अन्नपूर्णा रसोई को कौन चलवा रहा है, समाजसेवी या जिला प्रशासन ?

अशोक श्रीवास्तवः बस्ती जिले में पुरानी बस्ती थाना क्षेत्र के करूआ बाबा चौक के निकट महीनों से संचालित अन्नपूर्णा रसोई को कौन चला रहा है, दानदाता, सेवादार या फिर जिला प्रशासन ? दरअसल महीनों से अन्नपूर्णा रयोई भूखों को भोजन करवा रहा है। सेवादार खुद बताते हैं कि सामान्य दिनों में 3000 से ज्यादा पैकेट भोजन का वितरण शहर के अलग अलग हिस्सों किया जाता है। कुछ लोग वहां पहुचकर भोजन करते हैं तो कुछ लोगों के घर सेवादार खुद भोजन का पैकेट पहुंचाते हैं। दर्जनभर सेवादार रोजाना निःशुल्क इस पुनीत कार्य को अंजाम दे रहे हैं। जरूरतमंद फोन करने पर अपने घर भोजन का पैकेट पा जाते हैं। अन्नपूर्णा रसोई को कोई धनपशु नही चला रहा है। इसे जनसहयोग से चलाया जा रहा है। सेवादार बताते हैं आज तक कभी रसोई में राशन कम नही हुआ।

ये दानदाताओं की महिमा है कि अन्नपूर्णा रसोई का चूल्हा एक बार जला तो रोज जल रहा है। रोजाना सैकड़ों लोग तृप्त होकर दानदाताओं को आशीष दे रहे हैं। अन्नपूर्णा रसोई पर कलम उठाने की जरूरत इसलिये महसूस हुई क्योंकि हालातों ने कई सवाल पैदा कर दिये हैं जिसका समाधान जरूरी है। सवाल है कि अन्नपूर्णा रसोई को कौन संचालित कर रहा है, समाजसेवा की सोच रखने वाले शहर के मुट्ठीभर समाजसेवी या जिला प्रशासन ? विगत कई दिनो से देखा जा रहा है कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से आ रहे हजारों प्रवासियों के भोजन की व्यवस्था अन्नपूर्णा रसोई कर रहा है।

प्रवासियों को गन्तव्य तक ले जाने के लिये लगाई गई बसों के चालक परिचालक भी अन्नपूर्णा रसोई के ही भोजन से तृप्त हो रहे हैं। ये तो दानदाताओं की महिमा है कि अन्नपूर्णा रसोई का राशन नही घट रहा है, लेकिन इतनी सारी जिम्मेदारी अन्नपूर्णा रसोई संभाल रहा है तो जिला प्रशासन क्या कर रहा है। कहीं पिसान पोत भंडारी बनने वाली कहावत तो नही चरितार्थ हो रही है। शासन से मिलने वाला भारी भरकम बजट, रेडक्रास सोसायटी और जिलाधिकारी को मिला सीधा सहयोग आखिर कहां जा रहा है ?

कोरेनटीन किये गये प्रवासियों को करीब 3 लाख भोजन पैकेट उपलब्ध कराने वाला जिला प्रशासन ट्रेनों से आने वाले श्रमिकों और रोडवेज के चालकों परचिलकों के भोजन के लिये अन्नपूर्णा रसोई पर क्यों निर्भर हो गया ? क्या अन्नपूर्णा रसोई को दानदाता इसीलिये सहयोग करते हैं कि उससे प्रशासनिक दायित्वों की पूर्ति की जाये। खबर ये भी है इससे पहले स्थानीय प्रशासन रोजाना सामान्य तौर पर रसोई की ओर से बंटने वाले भोजन पैकेटों के लाभार्थियों की सूची रसोई संचालकों से प्राप्त कर लेता था, इसकी जरूरत क्यों पड़ती थी कोई नही समझ पाया। फिलहाल जनचर्चाओं को सार्वजनिक किया जाना जरूरी है।

इसी तरह एक सामाजिक संगठन को एक दिन देर रात में एक जिला स्तरीय अधिकारी का फोन आता है कि राजस्थान से कुछ बच्चे आ रहे हैं। देर रात बस्ती पहुचेंगे। करीब 40 की संख्या होगी। उनके लिये भोजन की व्यवस्था करनी है। जिसने समाजसेवा में नाम लिखा लिया है वह सीधे मना तो नही कर सकता। फिलहाल संस्था के एक जिम्मेदार ने बड़ेवन चौराहे पर तहरी बनवाया। बस मध्यरात्रि में पहुंची, सभी ने भोजन किया। उसमे कई प्रवासियों ने तीन दिनों से भोजन नही किया था। सवाल ये नही कि समाजसेवी को अचानक भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी, सवाल ये है कि सरकारी धन, माननीयों के सहयोग, शासन से मिल रहा बजट, हजारों की संख्या में सरकारी कर्मचारियों की ताकत कहां खर्च हो रही है ?

दरअसल कोरोना वायरस के कारण लाकडाउन और अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी के बीच देश सबसे बड़ा पलायन देख रहा है। सामाजिक सोच के धनी प्रवासी मजदूरों को भोजन, जलपान, फल आदि मुहैया करवा रहे हैं। निःसंदेह संवेदनशीलता दिखाई दे रही है। सैकड़ों किमी. पैदल चलकर बस्ती पहुंचे प्रवासी यदि ये कह रहे हैं कि दो दिन हुआ भोजन नही मिला, लेकिन बस्ती में लोगों ने सेवा भी की और भोजन भी दिया। एक प्रवासी ने मीडिया दस्तक संवाददाता से कहा सफाईकर्मियों का नही प्रधानमंत्री को इन समाजसेवियों का पैर धुलकर उनका हौसला बढ़ाना चाहिये जिससे मानवता सदियों तक जीवित रहे लेकिन यहां तो जनता पर लाकडाउन थोपकर प्रवासी मजदूरों को मरने के लिये सड़कों पर छोड़ दिया गया। भूखे पेट, तड़पती धूप और लड़खड़ाते पैरों से चलकर पहुंचे ज्यादातर मजदूरों के ऐसे ही विचार हैं।


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