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29 मार्च 2024
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दमनकारी नीति छोड़, समाधान का हिस्सा बनें

Posted on: Thu, 22, Oct 2020 9:10 PM (IST)
दमनकारी नीति छोड़, समाधान का हिस्सा बनें

उत्तर प्रदेश में धीरे धीरे लोकतंत्र को खत्म किया जा रहा है। दोहरे मापदंड का तो इतिहास बन रहा है। सत्ताधारी दल के नेता या कार्यकर्ता कोई कार्यक्रम आयोजित करते हैं तो पुलिस और जिला प्रशासन दोनो आखें मूंद लेता है। उस वक्त न महामारी अधिनियम याद आता है और न निषेधाज्ञा। यही कारण है विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अनेकों मुकदमे दर्ज हुये।

लेकिन कोविड प्रोटोकाल को धता बताकर सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों ने अनेक कार्यक्रम आयोजित किये किसी ने औपचारिकता में भी नही कहा कि आप गलती कर रहे हैं। सरकार और और जिलों में बैठक अफसर यदि ऐसा आचरण करते हैं तो यह भारतीय लोकतंत्र को निष्प्राण करने की साजिश है। एक ओर सरकार जनता को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करती है दूसरी ओर लोग जागरूक होकर अपने अधिकार मांगने लगते हैं तो उन पर मुकदमे दर्ज करा देती है। अफसर गुण्डों की भाषा बोलते हैं। महामारी कानून और निषेधाज्ञा उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के लिये ढाल बन गये हैं। इसकी आड़ में विपक्ष और जागरूक जनता पर लाठियां और मुकदमे बरस रहे हैं।

सवाल ये है कि पीड़ितों को समय से न्याय मिले तो कौन सड़को पर उतरकर विरोध करना चाहेगा। लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में न्याय मिलना बेहद कठिन होता जा रहा है। कभी जांच के नाम पर तो कभी ऊपरी दबाव का बहाना बनाकर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। सत्ताधारी नेताओं की बेवजह पैरबी ने अफसरों के हाथ बांध रखे हैं। नतीजा ये है कि अफसर तरह तरह की बहानेबाजी कर विवादित मामलों से दूर भागते नजर आते हैं। निर्णायक भूमिका तो दिखाई ही नही देती। हैरानी तब होती है जब एक ही मामले में अफसर दो तरह के ऑर्डर कर देते हैं।

इससे दो बातें जाहिर हो जाती हैं या ते वे संवेदनशील नही हैं या फिर सत्ता प्रतिष्ठान के दबाव में उनके हाथ रूक जाते हैं। इतनी संकीर्णता फिलहाल पहली बार देखी जा रही है। हालांकि यही स्थिति सभी जिलों में है, लेकिन बस्ती जिले के उदाहरण देना चाहेंगे। दिल की गंभीर बीमारी से पीड़ित 6 साल की मासूम का उचित इलाज न होने से हुई मौत के बाद व्यवस्था से आहत समाजसेवी राना दिनेश प्रताप सिंह बस्ती विकास प्राधिकरण कैम्पस में स्थित बापू प्रतिमा के समक्ष चटाई बिठाकर मास्क और सेनेटाइजर के साथ अकेले बैठ गये। जिलाधिकारी पहुंचे और सरकारी दफ्तर के कैम्पस में धरना देन पर राना को हड़काने लगे।

उनकी भावनायें आहत थीं, उन्होने कहा आप मुकदमा दर्ज करवा दीजिये या जेल भेज दीजिये, मगर हमारी मागों पर विचार कर लीजिये। आपको बता दें वे कई साल से बस्ती में हृदयरोग विशेषज्ञ तैनात किये जाने की मांग करते आ रहे हैं। फिलहाल महमामारी अधिनियम (धारा 188) के तहत उन पर मुकदमा लाद दिया गया। उन्होने कहा हम सजा भोगेंगे लेकिन जमानत नही करायेंगे। ऐसा उन्होने इसलिये कहा कि धरना देना हर किसी का लांतांत्रिक अधिकार है, इसे छीना जा रहा है। ऐसे में मौन रहना घातक होगा। दूसरा उदाहरण व्यापारी नेता आनंद राजपाल से जुड़ा है। पचपेड़िया रोड की बदहाली को लेकर जनता वर्षों से परेशानी झेल रही है।

कई बार नोटिस देने के बाद सड़क की मरम्मत नही हुई तो एक दर्जन व्यापारियों ने पचपेड़िया रोड पर कोविड प्रोटोकाल का पालन करते हुये बुद्धि शुद्धि यज्ञ किया। अनेकों बार इस सड़क के लिये धरना प्रदर्शन हुये। नतीजा आज भी सिफर है। जनहित के मुद्दे को लेकर संघर्ष करने वाले व्यापारियों पर भी धारा 188 के तहत मुकदमा दर्ज कराया गया। हालांकि सड़क को ठीक कराने के लिये अधिकारी दर्जनों झूठ बोल चुके हैं। शहर के एक व्यापारी की बेशकीमती जमीन हड़पने की साजिश के खिलाफ चल रहे चरणबद्ध संघर्ष की कड़ी में 48 घण्टे की नोटिस देकर व्यापारी जिलाधिकारी कार्यालय परिसर में बुधवार को धरने पर बैठ गये। अधिकारी आये और जिलाधिकारी परिसर में धरना शुरू करने पर धैंस दिखाने लगे।

कहा बाहर जाइये यहां से, यहां क्यों बैठ गये, धरनारत व्यापारियों ने पूछा कहां धरना दें, कौन सी जगह सुनिश्चित है, बताइये। उन्होने कहा बाहर जाइये। इन हालातों में कई सवाल उठते हैं, क्या धरना देने का अधिकार अब नहीं रहा ? यदि है तो बस्ती में धरनास्थल आखिर कहां है ? अमूमन जिलों में कलेक्ट्रेट पर ही धरना दिया जाता है। महानगरों में भीड़भाड़ से बचने के लिये इसके लिये अलग तय कर दी जाती है। बस्ती में जिलाधिकारी कार्यालय के सामने या फिर गांधी कला भवन में धरना प्रदर्शन कई दशक से होते आ रहे हैं। पूर्व में आये एक तेज तर्रार स्मार्ट जिलाधिकारी ने जन सरोकारों से जुड़े भवन गांधी कला भवन में बस्ती विकास प्राधिकरण का दफ्तर खोलवा दिया।

और कलेक्ट्रेट के बाहर लगे पेड़ों के छाये में जहां धरना प्रदर्शन होते थे वहां बिलकुल निष्प्रयोज्य बेढंगा पार्क बनवा दिया गया। बनने के बाद से आज तक इसका कोई उपयोग नही हो रहा है। इसी पार्क की वजह से कचहरी परिसर में जाम लगने लगा। फिलहाल दोनो धरनास्थल जनता से छीन लिये गये। अब धरनास्थल कहां है किसी को नही मालूम। समझा जा सकता है स्थितियां कितनी जटिल हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि अधिकारी संवेदनशील हों, जनसमस्याओं का गुणवत्तापूर्ण निस्तारण हों, अफसरों और पुलिस के हाथ सत्ता प्रतिष्ठानों और इससे जुड़े लोगों ने न बांध रखे हों, निष्पक्षता और जीरो टॉलरेंस सरकार की पालिसी का हिस्सा हो तो पीड़ितों को न्याय क्यों नही मिलेगा ? बेहतर होगा अफसर लोकतंत्र को खत्म करने से बाज आयें और दमनकारी नीति छोड़कर समाधान का हिस्सा बनें, यदि वे ऐसा नही कर सकते तो खुद एक समस्या हैं।


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