कैसे बुझेगी प्यास जब बेपानी हैं ताल पोखरे
रुदौली, फैजाबादः (रवि प्रताप सिंह की रिपोर्ट) कहा जाता है जहां संवेदना ही मर जाए वहां कुछ भी बचने की उम्मीद नहीं की जाती। यह स्थिति गांवों में पानी के परंपरागत तालाबों की है। पहले लोग ताल-तालाबों के निर्माण तथा उसके रखरखाव के लिए काम करते थे। मगर आज भौतिक संसाधनों को जुटाने में मची भागमभाग के आगे कोई प्राकृतिक संसाधनों की ओर नही देख रहा है।
तालाब खुदवाना उसका संरक्षण करना यह सब बात गुजरे जमाने की होकर रह गई है। लोगों की संवेदना क्या मरी ताल पोखरे भी मरने लगे। सरकारी मंत्र भी इसके लिये कम जिम्मेदार नही है। मवेशियों और दूर देश के पक्षियों की प्यास बुझाने वाले तालाब पोखरे खुद बेपानी है। ारकारों की जिम्मेदारी होती है कि गरमी के मौसम में ताल पोखरों में पानी भरवायें जिससे जल स्तर भी बना रहे और मवेशियों तथा परिदों की प्यास भी बुझ जाये। अधिकांश गांव में तालाब सूखे पड़ें हैं। उनके अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है। जिससे भूगर्भ का जलस्तर भी गिरता जा रहा है, जो भविष्य के लिये एक गम्भीर समस्या बनकर सामने आयेगी। ऐसे सूखे पड़े जलाशयों में बच्चे क्रिकेट मैदान बनाकर खेल रहे हैं। सूखे तालाबों से धूल उड़ती है।
अतिक्रमण है बड़ी समस्या
ताल-तालाबों के मरने के पीछे सबसे बड़ा कारण अतिक्रमण है। आज लोग अपने निजी तथा क्षणिक हित के लिए गांवों के तालाब-पोखरों का अतिक्रमण कर रहे हैं। इससे मुट्ठी भर लोगों को फायदे के अलावे बहुसंख्यक लोगों को परेशानी झेलनी पड़ रही है। इसका दुष्परिणाम 95 प्रतिशत लोगों को भुगतना पड़ रहा है। इसका असर गांवों की खेती के साथ पशुओं पर भी पड़ रहा है।
पशुओं के पानी-पीने की समस्या
गांव में तालाबों के विलुप्त होने से आम लोगों के साथ बेजुवान पशुओं को भी इसकी पीड़ा सहनी पड़ रही है। गावों का अधिकांश पोखर मर रहा है। इसमें पानी मुश्किल से तीन महीने ही रहता है। पहले गांव की एक पोखर में आस-पास के आधा दर्जन गांवों के पशुओं को गर्मीं में नहलाने तथा पानी पिलाने का काम होता था। मगर अब स्थिति यह है कि यहां चिड़ियां के भी स्नान करने का पानी नहीं है।
सिंचाई भी हो रही प्रभावित
तालाबों के सूखने से खेतों की सिंचाई भी प्रभावित हो रही है। किसान शिवकुमार यादव, इन्द्रसेन यादव, बलराम सिंह, ओमकार आदि ग्रामीणों का कहना है कि पहले तालाबों से किसान सैकड़ों एकड़ फसल की सिंचाई भी कर लेता था। मगर अब तो हालत यह है कि खुद तालाब की छाती फटी हैं, खेतों की प्यास कैसे बुझेगी। तालाबों के खत्म होने से खेती की पैदावार पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। पहले इन्ही तालाबों से खेतों को पानी मिलता था। क्योंकि उस समय ज्यादा बोरिंग व सिंचाई के साधन नहीं थे।
जिम्मेदार लोग भी संवेदनहीन हो गये
तालाबों के संरक्षण तथा इसके बचाव की जिम्मेदारी लेने वाले ही इस मसले पर संवेदनहीन बने हैं। स्थानीय लोग कहते हैं कि पिछले दस वर्षों में पोखर की बहुत ही दुर्दशा हुई है। तालाबों को पुनर्जीवित करने के लिए स्थानीय लोगों ने कहा जनप्रतिनिधि से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक जिम्मेदारी से काम करें तो मरते पोखर-तालाबों में फिर जान आ सकती है। फिलहाल खत्म होती ताल कुओं की संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों के लिये प्रशासनिक पहल और जागरूकता की जरुरत है।