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पतियों, प्रतिनिधियों की बल्ले बल्ले, चुनाव जीतकर आई महिलायें तो रबर स्टैम्प हैं !

Posted on: Tue, 20, Jul 2021 9:46 PM (IST)
पतियों, प्रतिनिधियों की बल्ले बल्ले, चुनाव जीतकर आई महिलायें तो रबर स्टैम्प हैं !

अशोक श्रीवास्तव की संपादकीय--आधी आबादी को मुख्य धारा में लाकर उसे समृद्ध बनाने की सारी कोशिशें बेकार हैं। महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने और उन्हे पुरूषों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात सिर्फ विश्व महिला दिवस पर 8 मार्च को होती है। जिनके यहां घर के अलावा दूसरे पुरूषों के सामने आना महिलाओं का अपराध माना जाता है वे भी बड़ी बड़ी डींगे हांकते हैं।

इसीलिये समाज में बदलाव नही आ रहा है। सच्चाई कुछ और है और विस्तार झूठ का हो रहा है। 20 फीसदी छोड़कर आज भी महिलाओं को उपभोग की विषयवस्तु मानते हैं, घर में रहकर खाना बनाना खिलाना, चौका बरतन करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। ये दकियानूसी ख्याल सिर्फ हमारे आपके परिवारों में ही नहीं सिस्टम में भी है। महिलाओं को समृद्ध बनाने, उनकी कार्यक्षमता का राष्ट्र निर्माण में उपयोग करने और उन्हे पुरूषों के बराबर हक दिलाने के लिये पंचायत चुनावों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने का जब ऐतिहासिक निर्णय लिया गया तो ऐसा लगा कि अब महिलायें गांव की सरकार चलायेंगी।

उनकी निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा, वे नेतृत्व के गुणों से परिपूर्ण होंगी और यहीं से सही मायने में राष्ट्र निर्माण शुरू होगा। लेकिन सिस्टम ने इस पर पानी फेर दिया। बड़ी संख्या में पुचायत चुनाव जीतकर आई महिलायें एक बार फिर सबर स्टैम्प बनने को तैयार हैं। कई जगहों पर तो जीत का प्रमाण पत्र भी उन लोगों के हाथों में दिया गया जिनके हाथ में उन महिलाओं की चाबी है। जो सीटें पिछड़ी या अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिये आरक्षित थीं वहां सवर्णों का परचम लहरा रहा है। मजाल क्या है चुनाव जीती हुई महिला स्वतः कोई निर्णय ले ले। नज़ीर इतने हैं कि गिन नही पायेंगे।

चुनाव जीतकर आई महिला गांव में घूघट में होगी और जिसने चुनाव लड़ाया वह गांव की सरकार चलायेगा। भारतीय राजनीति या पंचायती राज व्यवस्था की यह कितनी बड़ी बिडंबना है। इससे बड़ी बात ये है कि इसमें सुधार करने को कोई तैयार नही है। विधायक से लेकर मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री तक ये बात जानते हैं लेकिन महिलाओं को उनका वास्तविक अधिकार दिलाने की दिशा में उनके पास कोई रोडमैप नही है। यही कारण है कि हर चुनाव में आधी आबादी को कुंठा का शिकार होना पडता है। प्रधान को कोई नही जानता, प्रधानपति को दुनियां जानती है, यही हाल प्रमुखों का है। महिलाओं के लिये आरक्षित सीटों पर जो महिलाओं जीतकर आई और शपथ ली हैं उनमें आज के बाद अपवादस्वरूप कोई दिख जाये तो नही कह सकते वरना उनके हिस्से में घर की चहारदीवारी ही आयेगी।

कब आयेगा वो दिन महिलायें आत्मनिर्भर होंगी ? पुरूष उनके अधिकारों पर कब तक डाका डालते रहेंगे ? क्या प्रधानपति चुनने के लिये लागू की गयी थी पंचायतीराज व्यवस्था ? क्या मौजूदा व्यवस्था आधी आबादी के अधिकारों का पूरा शोषण नही है ? पूरी जिंदगी लोगों की संर्घों में बीत जाती है। सत्ता और सरकार बदलने के लिये सभी लड़ते आये हैं एक बार व्यवस्था बदलने के लिये क्यों नही लड़ जाते ? जो पुरूष चुनाव जीतकर आई महिलाओं को घर की चौखट के पीछे धकेलकर खुद फूल माला पहन रहे हैं, उसके सारे निर्णय खुद ले रहे हैं, उन्हे यह भ्रम दूर कर लेना चाहिये कि महिलायें उनसे किसी मायने में कम नहीं हैं, बेहतर होगा नव गठित पंचायती राज व्यवस्था में चुनाव जीतकर आई महिलाओं को स्वतंत्र होकर काम करने दें, यकीं करें उनका हर फैसला बदलाव की इबारत लिखेगा, आपसे कोई उम्मीद नहीं आप तो ही खांचें में सेट हो जाते हैं।


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