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प्रेस क्लब का चुनाव, जानिये क्या है खास

Posted on: Sun, 29, Sep 2019 9:12 AM (IST)
प्रेस क्लब का चुनाव, जानिये क्या है खास

अशोक श्रीवास्तवः बस्ती का प्रेस क्लब प्रदेश में अपनी खास पहचान रखता है। यहां की पत्रकारिता भी महानगरों से किसी मायने में कम नहीं है। करीब तीन साल पहले कुछ गिने चुने पत्रकारों के संघर्ष के बाद प्रेस क्लब झोले से बाहर आया, विधिसम्मत चुनाव हुआ, लोकतंत्र बहाल हुआ। ऐसी कार्यकारिणी आई जिसने प्रेस क्लब भवन को खूब सजाया। रंग रोगन, आधुनिक संसाधनों को जुटाने के साथ ही दूसरे तल का निर्माण भी शुरू हुआ। आज भवन की भव्यता और साज श्रंगार को लेकर सबकी जुबान बंद है। इतना ही नही जब प्रेस क्लब पहले से कई गुना आकर्षक हुआ, अत्याधुनिक संसाधन जुटे तो लोग कार्यक्रमों के आयोजन के लिये प्रेस क्लब भवन को बेहतर मानने लगे और बुकिंग भी तेज हुई।

निःसंदेह आय का जरिया बढा। अब प्रेस क्लब के कोष में बचत भी दिखाई देती है। तीन साल बाद फिर चुनाव हो रहा है। साल 2019 के चुनाव से यह चुनाव कई मायनों में भिन्न है। पिछले चुनाव में सादगी थी, पत्रकारों ने सम्बन्धों के आधार पर अपने चहेतों को वोट दिया लेकिन इस चुनाव में मतदाता प्रत्याशियों का मूल्यांकन कर रहा है। मौन मतदाताओं ने प्रत्याशियों को परेशान कर रखा है। मुखर होकर सपोर्ट न करने के कारण प्रत्याशी मतदाताओं से बार बार मिल रहे हैं और तरह तरह की बातें कर अपने पक्ष में मतदान करने की अपील कर रहे हैं। 107 मतदाताओं वाले प्रेस क्लब चुनाव में मतदाता भी सजग है, हर प्रत्याशी को वह अपना खास बता रहा है। अजीब उलझन है।

300 से ज्यादा पत्रकारों वाले शहर में केवल 107 पत्रकार प्रेस क्लब के सदस्य हैं। ऐसे मानक हैं कि लोगों को सदस्य बनने के लिये लोहे का चना चबाना पड़ता है। प्रेस क्लब के संविधान के मुताबिक भी लोग सदस्य नही बनाये गये। महज 107 सदस्यों वाले परिवार में दो दर्जन से ज्यादा चुनाव लड़ रहे हैं। प्रबुद्ध पत्रकार सर्वसम्मति से अपना संरक्षक तक नही चुन पाये। उसके लिये भी चुनाव हो रहा है। 107 मेंं किसे अपना कहें किसे पराया। किसे अच्छा कहें किसे बुरा। लेकिन बात जब फैसले की बात हो तो कहीं न कहीं तो ठहरना पड़ेगा। प्रेस क्लब एक संवैधानिक संस्था है जिसके निर्माण के समय पत्र पत्रकारिता और पत्रकारों के मान सम्मान के लिये संघर्ष की बात कही गयी होगी। बताया जाता है प्रेस क्लब के बॉयलाज में उद्देश्य ही नही है।

इसे तत्कालीन पत्रकारों की कुटिलता कहें या संविधान को पंजीकृत करने वाले अफसर की बेवकूफी। फिलहाल दोनो में कोई तो सच है। जब उद्देश्य ही नही तो मूल्यांकन कैसे करें। तीन साल पहले तो पदाधिकारी चुनकर आये उन्होने अच्छा काम किया या खराब इसका मूल्यांकन तो तब होता जब सामने उद्देश्य होता। लेकिन दो बातें सभी को दिख रही हैं। एक प्रेस क्लब भवन की सुंदरता दूसरे जिस दरियादिली से पत्रकारों को सदस्य बनाने का पिछले चुनाव में वादा किया गया था, वह वादाखिलाफी। फिर भी अध्यक्ष की तारीफ की जानी चाहिये, विपक्ष के तीन साल के दांव पेंच के बाद वे पुराने सदस्यों को बचा ले गये वरना उन पर भी संविधान की तलवार लटक रही थी। 30 सितम्बर को मतदान है। प्रबुद्ध मतदाता ऐसे प्रत्याशियों को बिलकुल नकारने के मूड में जिनका दूर तक पत्रकारिता से लेना देना नही है।

लेकिन वे पदाधिकारी बनकर अपनी हनक कायम रखना चाहते हैं। खास बात ये है कि सभी पदों पर दो प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे हैं। मनोज यादव के समर्थन में परचा उठा लेने के कारण मनोज यादव संगठन मंत्री बन गये हैं। बाकी पदों पर सीधा मुकाबला है। सबसे खास यह है कि 7 सदस्यों वाली कार्यकारिणी में 11 पत्रकार अपना रूतबा अंदाज रहे हैं। पिछले चुनाव में अध्यक्ष की लोकप्रियता और आपसी समझ में चलते सभी सदस्य निर्विरोध चुने गये थे। इस बार कांटे का टक्कर है। चर्चा है कि इसमें कई ऐसे चेहरे हैं जो प्रेस क्लब के पदाधिकारी का चुनाव लड़कर अच्छा काम कर सकते हैं, तो वे कार्यकारिणी सदस्य के लिये क्यों लड़ रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है वे कार्यकारिणी सदस्य चुने गये तो आगामी तीन साल गौरवशाली होंगे क्योंकि प्रेस क्लब को सजाने संवारने का काम पूरा हो चुका है अब पत्र, पत्रकारिता और पत्रकारों को मजबूत करने की जरूरत है जिसके लिये खास पहचान रखने वाले सदस्यों की जरूरत होगी जो नये प्रस्तावों से प्रेस क्लब को दिशा देंगे।

सम्मानित मतदाताओं को चाहिये कि वे आपस में कोई वैमनस्यता न रखें। चुनाव जीतें या हारे हम अपने दोस्त बदलने वाले नही हैं। और हम चाहें भी तो दोस्त नही मिलने वाले हैं। पत्रकारिता में अब आना ही कौन चाहता है। गिने चुने पत्रकार हैं जिन्हे परिवार की शक्ल में देखें तो भी बहुत बड़ा परिवार नही है। लोग अक्सर कहा करते हैं पत्रकारों को एकजुट करना मेढक तौलने के बराबर है। लेकिन आज जब चुनाव है तो एकजुटता दिखाई दे रही है। प्रत्याशी पत्रकार साथियों के घर पहुंच रहा है, पूरी आत्मीयता दिखा रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि मुसीबत में सबसे पहले उसी को याद करना चाहिये। लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि क्या ये भाव स्थायी हैं, नही हैं तो क्यों नहीं हैं। क्या आज स्वार्थ के चलते ये भाव दिखाई दे रहे हैं। अगर स्वार्थ हमें एकजुट कर सकता है तो हमें स्वार्थी होने से कोई गुरेज नही है और सभी पत्रकारों को स्वार्थी हो जाना चाहिये, हमें लगता है इससे एकजुटता आयेगी और लोग यह कहना बंद कर देंगे कि पत्रकारों को एकजुट करना मेघा तौलने के बराकर है।

फिलहाल प्रेस क्लब के सम्मानित मतदाताओं को 30 सितम्बर को प्रत्याशियों को वोट देने से पहले प्रेस क्लब और पत्रकारों की जरूरतों और बेहतरी के लिये कुछ विन्दुओं पर सोचना होगा। प्रेस क्लब को एक उद्देश्यपूर्ण संविधान की जरूरत है, इसके लिये बार बार जलील होना पड़ता है, सदस्यता के मानकों को सरल करना होगा, कमसे कम जो खुद का अखबार निकाल रहे हैं, डिजिटल मीडिया का संचालन कर रहे हैं उन्हे भी सदस्य बनाने की नीतियां बनानी होंगी। इसके लिये दकियानूसी सोच त्यागनी होगी। प्रेस क्लब में सदस्य बढ़ेगे तो वे पदाधिकारियों से राशन मांगने नही जायेंगे बल्कि खुद को गौरवान्वित महसूस करेंगे कि हम भी इस विशाल परिवार का हिस्सा हैं। संरक्षक बगैर बैलेट के तय करने होंगे। सबसे ज्यादा प्रबुद्ध की जाने वाले पत्रकार यदि अपने विवेक से अपना गार्जियन न तय कर पायें तो इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी।

सबसे ज्यादा कष्ट तब होता है जब पत्रकार उत्पीड़न मामलों में लड़ाई अधूरी रह जाती है और पीड़ित पत्रकार को सिर झुकाकर रहना पड़ता है। ऐसा सक्षम नेतृत्व के अभाव में होता है। निर्णय लेने की क्षमता और स्वाभिमान से समझौता करने की प्रवृत्ति ने कई मामलो को बेनतीजा छोड़ दिया। ऐसे में पत्रकार उत्पीड़न मामलों में एक ऐसी उप समिति बनानी होगी जो फैसले करेगी और रणनीति तय करेगी कि पत्रकारों का स्वाभिमान कैसे सुरक्षित रहे। एक और कष्ट तब होता है जब हमारे किसी पत्रकार साथी का निणन हो जाता है। हम छोटी छोटी धनराशि इकट्ठा कर 25-50 हजार देकर उस पीड़ित परिवार की मदद करते हैं। इसके लिये स्पष्ट नीति बनानी होगी जिससे ऐसी घटनाओं में 24 घण्टे के भीतर प्रेस क्लब की ओर से कमसे कम सम्बन्धित परिवार को एक लाख रूपये की सहायता पहुंच जाये और अतिरिक्त मदद के लिये शासन प्रशासन से भी गुहार लगायी जाये। इसके लिये भी उपसमिति बनाना अनुचित नही होगा।

प्रेस क्लब को कम्प्ूटराइज्ड करना होगा जिससे यहां से पत्रकार जरूरत पड़ने पर अपने संस्थानों में समाचार भेज सकें, प्रेस क्लब की विज्ञप्तियां जारी हो सकें और पत्रकार खबरों से अपडेट रहें। प्रेस क्लब में कैण्टीन की जरूरत पहले से महसूस की जा रही है, इसे पूरा करना होगा। ऐसा होने पर कार्यक्रमों में इसी कैण्टीन से सुविधायें मिल जायेंगी। प्रेस क्लब में एक सदन का निर्माण करना होगा जहां पूरा मंत्रिमण्डल बैठकर फैसले ले सके और नये नये प्रस्तावों पर खुलकर बंहस हों। हम पत्रकार हैं हमें दूसरों के लिये सबक बनना चाहिये। प्रेस क्लब में स्वस्थ लोकतंत्र आया तो प्रक्रिया भी वही अपनाई जानी चाहिये। पत्रकारों की कार्यशाला, देशाटन सहित तमाम जरूरतें ऐसी हैं जो अगले कार्यकाल में पूरी होंगी और बस्ती में पत्रकारिता करने वालों को गर्व होगा कि वे प्रेस क्लब के सदस्य भी हैं।


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