अपशगुन! महिलाओं ने उतरवाये केश, ये कैसी सरकार
अशोक श्रीवास्तवः मन बहुत ब्यथित है। जितनी बार तस्वीरे सामने आयीं उतना ही मन बोझिल होता गया। कोई एक व्यक्ति यदि इसका दोषी होता तो उसके लिये मौत की सजा भी शायद कम पड़ती। हम बात कर रहे हैं शिक्षामित्रों और खास तौर से महिला शिक्षामित्रों की। जितनी बार फेसबुक पर दृष्टि पड़ी उतनी तस्वीरें सामने आयीं। लखनऊ में सरकार की संवेदनहीनता के विरोध में शिक्षामित्रों ने सामूहिक मुंडन कराया। इसमें बड़ी संख्या में महिलाये भी शामिल रहीं। एक महिला का केश उतरता है तो भूचाल आ जाता है। इतनी बडी संख्या में महिलाओं ने अपने केश उतरवा दिये।
इससे बड़ा अपशगुन क्या हो सकता है। हमें तो यह किसी अनहोनी या बहुत बड़े परिवर्तन का संकेत लगता है। हमें नही लगता कि हमारे सामने ऐसी महिला आ जाये जिसके केश उतरे हों और हम इसे बर्दाश्त कर पायें। द्रौपदी ने अपने केश उतरवाये नही थे, केवल उसे न संवारने का संकल्प लिया था। नतीजा बताने की जरूरत नही। एक महिला के केश उतरना सौ मौतों के बाद पसरे सन्नाटे से ज्यादा भयावह है। कुछ भी हो, शिक्षामित्र पीड़ित हैं, उनकी भावनायें समझी जा सकती हैं, लेकिन महिलाओं को केश नही उतरवाने चाहिये थे। जहां संवेदनायें मृतप्राय हो गयी हों वहां इस प्रकार के प्रदर्शन अर्थहीन हो जाते हैं।
आज लखनऊ के ईको गार्डन पार्क में सरकार के खिलाफ महिला शिक्षामित्र हल्ला बोलेंगी। महिलाओ के साथ प्रदेश के हजारों शिक्षा मित्र भी रहेंगे। इसके बाद शहीद स्मारक पर हवन का करेंगे। पिछले साल आंदोलन के दौरान 700 शिक्षा मित्रों की जान चली गई थी जान। उनकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना और मृतकों के परिजनो को आर्थिक सहयता दिलाने की मांग की जायेगी। इस पूरे प्रकरण में आखिर दोष किसका है। पूर्व की सरकार ने हाशिये पर आ चुकी प्राथमिक व वरिष्ठ प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिये शिक्षामित्र पद का सृजन किया था। पूरे प्रदेश में भर्तियां हुईं। नई उम्र के लोग अध्यापक बनकर पहुंचे तो शिक्षा में सुधार हुआ, स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी। शिक्षा के स्तर में सुधार हुआ साथ ही साक्षरता की दर भी बढ़ी।
समायोजन हुआ, सभी के चेहरों पर खुशहाली दिखी। बाद में वैधानिक अड़चनों का हवाला देकर उनका समायोजन रद कर दिया गया। शिक्षामित्र इससे आहत हुये। बड़ी संख्या में शिक्षामित्रों में प्राण त्याग दिये। ऐतिहासिक आन्दोलन हुये लेकिन जिम्मेदारों के कान में जू नही रेंगा। अब सरकार कम से कम उन्हे सम्मानजनक मानदेय तो दे ही सकती है। मौजूदा समय में उन्हे 10 हजार दिया जा रहा है, इतने में एक मजदूर भी अपना परिवार नही चला पाता। शिक्षक और मजदूर को एक बराबर लाकर खड़ा कर देंगे तो समाज में स्थितियां तो असहज होंगी। महंगाई और जरूरतें ऐसी हैं कि 20 हजार रूपये में हम दो हमारे दो वाला परिवार भी नही चलाया जा सकता। वर्तमान में केन्द्र व प्रदेश में भाजपा की सरकारें हैं, उन्हे सहानुभूतिपूर्वक शिक्षामित्रों के भविश्य पर विचार करना चाहिये।
एक लाख से ज्यादा शिक्षामित्रों का मामला एक गंभीर प्रकरण है। चुनाव प्रचार के दौरान तो प्रधानमंत्री ने कहा कि शिक्षामित्रों की जिम्मेदारी मेरी। उस वक्त डेढ़ लाख शिक्षामित्र वोट बैंक नजर आते थे। क्या जिम्मेदारी निभाई उन्होने, 40 हजार वाले शिक्षामित्र 10 हजार पर आ गये। शायद सरकारों को वोट की भाषा ही समझ आती है। अभी वक्त है एक लाख शिक्षामित्र औकात पर आ जायेंगे तो 10 लाख लोगों का रूख मोड़ देंगे।