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07 मई 2024
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बस्ती महोत्सव के और कितने मायने ?

Posted on: Mon, 28, Jan 2019 1:24 AM (IST)
बस्ती महोत्सव के और कितने मायने ?

बस्तीः स्थानीय प्रशासन की ओर से 28 जनवरी से 03 फरवरी तक जीआईसी मैदान में आयोजित होने वाले बस्ती महोत्सव को लेकर तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं। प्रशासन सीधे जनता के निशाने पर है। पहला आरोप यह भी है कि महोत्सव की आड़ में जमकर धन उगाही की गयी है। भारी भरकम धनराशि इकट्ठा करने के लिये जनपद के मेडिकल व्यवसायी, ऑटो मोबाइल्स एसोसियेशन, गैस, पेट्रोलियम, क्लाथ मर्चेण्ट, ज्वैलर्स, बैंक, पैथालोजी, नर्सिंग होम और नामी गिरामी स्कूल निशाने पर रहे। चाय पान की दुकानों पर हो रही चर्चाओं की माने तो महोत्सव को भव्यता प्रदान करने के लिये करीब 4 करोड़ की धनराशि इकट्ठा की जा रही है। एक बड़े अधिकारी को कैशियर बनाया गया है। हालांकि इनमे किसी संगठन का मुखिया प्रशासन के खौफ के चलते मुंह खोलने को तैयार नही है लेकिन दबी जुबान से न छापने की शर्त पर पूरी हकीकत सामने आ जाती है। एक संगठन के पदाधिकारी द्वारा धनराशि इकट्ठा करने के लिये जारी पत्र वायरल हो गया जिससे हकीकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। दूसरा सवाल लोग बस्ती जनपद की बदहाली का उठा रहे हैं। जनता की जुबान पर समस्यायें तो अनगिनत हैं लेकिन इनमें जो खास हैं उस पर प्रकाश डाला जा रहा है।

कार्डियोलाजिस्ट की तैनाती को लेकर नाराजगी

बस्ती मंडल के किसी भी जिले में 15 वर्षों से कार्डियोलाजिस्ट की तैनाती नही है। हृदय रोगियों को बेमौत मरने के लिये उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया। समाजसेवी राना दिनेश प्रताप सिंह उर्फ सुड्डू ने लम्बी लड़ाई लड़ी। आधे दिमाग से काम कर रहे तंत्र ने उनके भूख हड़ताल की घोषणा के बाद कार्डियोलाजिस्ट की तैनाती कर दी। वह इतना शातिर निकला कि ज्वाइन किया और मेडिकल लीव लेकर भाग गया। स्थानीय प्रशासन ने राहत की सांस ली, सांप भी मर गया और लाठी भी नही टूटी और तमाम असमय मरने वालों के परिजनों की छाती पर बस्ती महोत्सव का खाका खींच डाला।

पेयजल की समस्या

शहर से लेकर गांव तक पेयजल एक गंभीर समस्या है। शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिये एक दशक में करीब अरबों रूपये खर्च किये गये। शहरी क्षेत्र में लगे वाटर प्वाइण्ट 80 फीसदी खराब पड़े हैं। कहीं टोटियां गायब हैं तों कहीं से मोटर। इण्डिया मार्का हैण्ड पम्प भी बेपानी हैं अथवा प्रदूषित जल दे रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में करोड़ों की लागत से वाटर हेड टैंक बनाये गये, लेकिन इन टंकियों से एक बूंद पानी सप्लाई नही हुआ। जबकि वाटर हेड टैंकों की देखभाल और संचालन के लिये तैनात कर्मचारियों और अधिकारियों के ऊपर करोड़ों रूपया हर महीने तनख्वाह के रूप में खर्च हो रहा है। गावों में लगे इण्डिया मार्का नल मुश्किल से 20 फीसदी ही काम कर रहे हैं। खतरनाक बात ये है कि प्रदूषित जल दे रहे नलों की मार्किंग तक नही की गयी है।

आवारा जानवरों की समस्या

आम जनमानस में इस समस्या को लेकर भारी गुस्सा है। झुण्ड के झुण्ड आवारा जानवर किसानों की फसलें चट कर जा रहे हैं। सरकार ने बगैर गौशालाओं की स्थापना किये ही स्लाटर हाउस बंद कर दिये। अनेक किसानों ने फसलें उगानी बंद कर दी। सब्जियां उगानी तो एकदम कम हो गयीं। बंदर, नीलगाय और जंगली सुअरों का आतंक कम नही था, पिछले दो ढाई सालों से गायों और सांडों का आतंक किसानों को बरबाद कर चुका है। जनपद मुख्यालय पर कान्हा हाउस बन चुका है लेकिन अभी शहरियों अथवा किसानों को कोई राहत नही मिली। दरअसल आवारा जानवरों को पकड़ने का काम इतना धीमा है कि इस तरह तो वर्षों लग जायेंगे आम जनमानस को राहत पहुंचाने में।

गड्ढा युक्त सड़कों का गुस्सा

हड़िया चौराहे से पौलीटेक्निक जाने वाला मार्ग, गनेशपुर दुबौला मार्ग, मुण्डेरवां लालगंल मार्ग, अस्पताल से सोनूपार मार्ग, पचपेडिया मार्ग सहित कई अन्य सड़कें बेहद खराब हैं। सरकार की खूब किरकिरी हुई। बस्ती की जनता सड़कों की बदहाली का दंश वर्षों से झेल रही है लेकिन मौजूदा सरकार ने जब गड्ढा मुक्त सड़कों का सपना दिखाया तो उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं और सरकार की यह सबसे फ्लाप योजना साबित हुई। बड़बोलापन तो इस तरह सामने आया था कि जनता को गड्ढा मुक्त सड़कें देने के लिये बाकायदा तारीख मुकरर्रर की गयी थी, तारीख गये सात महीने हुये सड़कें अब भी समस्या बनी हुई हैं।

रोज हो रहे सड़क हादसे

सड़क हादसों को कम करने के लिये किये जाने वाले इंजेजामों को लेकर स्थानीय प्रशासन बिलकुल गंभीर नही है। एनएच पर हड़िया चौराहे से लेकर छावनी तक अनेक दुर्घटना बाहुल्य क्षेत्र हैं, अनेकों जगह जेब्रा क्रांसिंग की मार्किंग किये जाने व बोर्ड लगवाने की जरूरत है। दुर्घटना बाहुल्य का बोर्ड लगवाने और सड़क पर पेण्ट से मार्किंग करने का पैसा प्रशासन के पास नही है और करोड़ों खर्च कर बस्ती महोत्सव किया जा रहा है।

पॉलीथीन की बंदी भी फ्लॉप

जनता में चर्चा है कि बगैर नोट छापे की गयी नोटबंदी जिस तरह विवादों में रही उसी तरह पॉलीथीन की फैक्ट्रियां बंद किये बगैर छोटे दुकानदारों के यहां डंडा पटकना भी बेनतीजा रहा। प्रतिबंध लागू होने के बाद एक दो दिन प्रशासन ने बड़ी सख्ती दिखाई, नगरपालिका की ओर से कुछ दुकानदारों का चालान भी किया गया, लेकिन थोक व्यापारी चांदी काटते रहे, बल्कि उन्होने पॉलीथीन का रेट बढ़ा दिया। जनता की जुबान पर छाई रही बात कि फैक्ट्रियां बंद कर दी जायें तो पॉलीथीन पर स्वतः रोक जग जायेगी लेकिन सरकार को यह कार्य संस्कृति रास नही आई और स्थानीय प्रशासन भी प्रतिबंध को लेकर गंभीर नही रहा।

गांधीकला भवन का मुद्दा

कचहरी एरिया जैसे खास लोकेशन में बना गांधीकला भवन वर्षों से सामाजिक सराकारों से जुडा था। यहां आये दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों, कवि सम्मेलनों आदि के आयोजन होते थे। बस्ती के प्रथम सांसद के पुत्र, पौत्र आदि इसके केयर टेकर थे। जिलाधिकारी ने उनके हाथों से व्यवस्था अपने हाथ में लेकर इसमें बस्ती प्राधिकारण का दफ्तर खोल दिया। तमाम प्रबुद्धजनों में इस बात को लेकर गुस्सा है।

आचार्य शुक्ल की प्रतिमा का मामला

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपने योगदान से बस्ती को वैश्विक पहचान दी है। वर्षों पूर्व उनकी एक प्रतिमा बड़ेवन तिराहे पर स्थापित थी। राष्ट्रीय राजमार्ग और फ्लाईओवर बनते समय प्रतिमा को तत्कालीन डीएम ने एक खेत में रखवा दिया था। फ्लाईओवर बने वर्षों बीत गये लेकिन आचार्य शुक्ल की प्रतिमा खेत में पड़ी धूल खा रही है। नये जिलाधिकारी डा. राजशेखर के आने पर कुछ सामाजिक संगठनों ने प्रतिमा को पूर्व स्थान पर स्थापित करने की मांग की। जिलाधिकारी ने इसको अनसुना कर दिया जबकि इसमें किसी भारी बजट या ऊपरी आदेश की भी जरूरत नही थी, इस समस्या का समाधान उनके विवेक पर निर्भर था।

अमहट पुल का मुद्दा

अमहट पुल ने बस्ती जनता को बहुत रूलाया। प्रतिबंध के बावजूद लोडेड वाहन ले जाने के कारण पुल अचानक टूट गया। आरोपी ठेकेदार आज सत्ता प्रतिष्ठानों और अफसरों के करीब है उसके खिलाफ कार्रवाई का कोई साहस नही जुटा सका। फिलहाल पुल के निर्माण के लिये तमाम धरना प्रदर्शन हुये, सरकार ने बजट रिलीज करने में बहुत वक्त लगा दिया। निर्माण ऐसे हो रहा है कि इसमें एक साल और लग सकता है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि एक ओर सरकार ने नदियों को साफ करवाने का काम शुरू किया है दूसरी ओर अमहट पुल पर गलत तरीके से सीढियां और अन्य निर्माण करवाकर कुंआनो नदी की धारा को अवरूद्ध कर दिया गया है। इतना ही नही शहर के गंदे नाले का मुंह लाकर अमहट घाट की सीढ़ियों के बगल में खोला गया है, जहां लोग स्नान ध्यान और पूजा पाठ करते हैं, कुआनों आरती और छठ जैसे महापर्व होते हैं वहां गंदे गंदे नाले को लाकर जोड़ना प्रबुद्धजनों को बिलकुल समझ नही आ रहा है।

सूखी नहरों का मुद्दा

जनपद की नहरों में 10 साल से पानी नही आया। गांव में बच्चे नहरों में क्रिकेट खेलते हैं। फसलों की सिंचाई के लिये पानी की अनुपलब्धता एक खास समस्या है। सरकार किसानों की आय दोगुना करने का दावा करती है, सामने आवारा जानवरों, सूखी नहरों की समस्या मुंह बाये खड़ी है। ऐसे में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा भी किसी जुमले से कम नही रहा।

बेपानी हैं 80 फीसदी नलकूप

ग्रामीण इलाकों में फसलों की सिंचाई के लिये लगे नलकूप 90 फीसदी खराब पड़े हैं। मजे की बात ये है कि नलकूपों को ठीक कराने के नाम पर शासन से भारी भरकम बजट आता है लेकिन सब कागजों में खर्च हो जाता है। ट्यूबवेल मैकेनिक से लेकर इंजीनियर तक बगैर काम किये तनख्वाह ले रहे हैं, जनता कह रही है स्थानीय प्रशासन समस्या की अनदेखी कर महोत्सव कराने में जुटा है।

रत्ती भर कम न हुआ भ्रष्टाचार

नयी सरकार और नये जिलाधिकारी के आने पर जनपद में भष्टाचार रत्ती भर कम न हुआ। खनन में खूब जमकर सरकारी आदेशों और मानकों की धज्जियां उड़ाई गयीं, प्रशासनिक अमला देखता रहा, कार्रवाई नही हुई, अलबत्ता खनन के आरोपी रसूखदारों की गोद में जाकर बैठ गये। सरकारी दफ्तरों में रिश्वतखोरी दोगुनी हो गयी, बावजूद इसके लोगों का सरकारी दफ्तरों में चक्कर काटना कम न हुआ। कई अफसरों पर भ्रष्ट कोटेदारों, प्रधानों को संरक्षण देने का आरोप लगा। जांच में दोषी पाये जाने के बाद भी कार्रवाई नही हुई।

छाया रहा पत्रकार उत्पीड़न मामला

रूधौली में हुआ पत्रकार उत्पीड़न का मामला भी मौजूदा जिलाधिकारी के कार्यकाल में छाया रहा। पत्रकारों को न्याय दिलाने के लिये बनी टीम की रिपोर्ट आज तक नही आई। रिपोर्ट आता तो कम से कम पता चल पाता कि मामले में पत्रकार दोषी थे या विधायक। इतना ही नही मामले में दो बार जिलाधिकारी से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल का अनुभव भी कड़वा रहा। पहली मुलाकात में पत्रकारों का दिल जीतने वाले जिलाधिकारी का नजरिया अचानक दूसरी बार की मुलाकात में ऐसा बदला कि उन्होने फोटो खींचने पर पत्रकार को फटकार लगा दी।

जनता से बहुत कम मिलने का आरोप

नये जिलाधिकारी के आने के बाद कई बार ये बात सामने आई कि जिलाधिकारी डा. राजशेखर से मिलना इतना आसान नही है। दरअसल निर्धारित समय पर भी वे जब दफ्तरों में फरियादियों से मिलने के लिये मौजूद नही रहते थे तो लोगों को निराश लौटना पड़ता था। वहां कोई ऐसी व्यवस्था भी नही कि आने जाने वाले कमसे कम अपनी समस्या और अपनी पहचान दर्ज करवा सकें। 91 साल की एक महिला जो शहर के एक होटल में एक सप्ताह भतीजे के साथ रूकी रही, जिलाधिकारी से मिलने नियमित जाती पर वे नही मिलते। फिलहाल उसने अपनी समस्या के लिये कोर्ट का सहारा लिया और बगैर उनसे मिले वापस चली गई। यही अनुभव सामाजिक कार्यकर्ता सुनील कुमार भट्टा का भी रहा।

आपदा से निपटने की तैयारी भी नही

जनपद में अचानक कोई आपदा आती है तो प्रशासनिक स्तर पर इससे निपटने की तैयारियां नाकाफी हैं। बस्ती, मंडल मुख्यालय है न तो यहां आग की घटनाओं से निपटने के पर्याप्त संसाधन हैं और न ही डूबते को बचाने के लिये गोताखोर। घटना होने पर लाश ढूढने में दो दिन जग जाते हैं वह भी उधार के गोताखोरों द्वारा। जनता की गाढ़ी कमाई आवश्यक आवश्यकताओं पर खर्च होनी चाहिये, न होने पर सवाल तो उठेंगे ही।

महोत्सव को लेकर विधायक संजय प्रताप जायसवाल द्वारा जारी विज्ञप्ति ने चर्चाओं को और तेज कर दिया है। उन्हे कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि बनाया गया था। लेकन दुश्वारियों की बुनियाद पर नृत्य संगीत उन्हे रास नही आया। महोत्सव का हिस्सा बनने की बजाय उन्होने खुद को इससे अलग कर लिया है। उनका कहना है कि जनता की मूलभूत समस्याओं का निदान किये बगैर महोत्सव बेमतलब है। उन्होने खुद को आयोजन से अलग करने के पीछे कई कारण गिनाये हैं जिनमें आचार्य शुक्ल के प्रतिमा की उपेक्षा, शुगर मिल रूधौली व वाल्टरगंज (गोविन्दनगर) पर किसानो का लगभग 90 करोड़ गन्ना मूल्य भुगतान, पांच दिनों में गन्ना केन्द्र या मिल गेट पर अगर नही पहुच पाया तो पर्ची का सप्लाई टिकट नम्बर निरस्त हो जाने, बिचौलियों के हाथों धान खरीद करवाने तथा बड़े पैमाने पर व्यापारियों व तमाम विभागों के कर्मचारियों से महोत्सव के नाम पर की गयी धनउगाही का मुद्दा खास है।

इन समस्याओं की बुनियाद पर जश्न भला किसे अच्छा लगेगा। जनता दुश्वारियां झेले और अफसर मुख्यालय पर जश्न बनायें ये तो फिलहाल आम जनता को चिढ़ाने से कम नही है। यही कारण है कि स्थानीय प्रशासन महोत्सव से आम जनता को जोड़ने में नाकाम रहा है। महोत्सव के मायने सिर्फ स्थानीय प्रशासन, गिने चुने जनप्रतिनिधियों, व्यापारियों और ठेकेदारों से जुड़े हैं। महोत्सव पूरी तरह राजनीतिक भी होता नजर आ रहा है। जनता से इतनी भारी रकम वसूल कर महोत्सव और इसके जरिये सरकार की योजनाओं के प्रचार प्रसार पर सवाल तो लाजिमी है। चर्चायें ये भी हैं कि महोत्सव के बाद चर्चित जिलाधिकारी का ट्रांसफर होने वाला है। दबी जुबान से सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों का कहना है कि महोत्सव ही उनके तबादले का कारण बनेगा। बस्ती महोत्सव के और कितने मायने हैं इसे समझने के लिये सप्ताह भर चलने वाले समारोह की समीक्षा का इंतजार करना होगा।


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