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मुश्किलें बताकर हमें डरायें नहीं

Posted on: Sat, 01, Jun 2019 8:59 AM (IST)
मुश्किलें बताकर हमें डरायें नहीं

हिन्दी पत्रकारिता पर एक बार फिर देशभर में बहंस छिड़ी। विभिन्न आयोजनों में लोगों ने पत्रकारिता की मुश्किलों पर प्रकाश डाला। जबकि जब तक पत्रकारिता है मुश्किलें कम नही होने वाली हैं। अपवादों को छोड़ दें तो इस क्षेत्र में कदम रखने वाला हर व्यक्ति पत्रकारिता के क्षेत्र की चुनौतियों से भलीभांति परिचित होता है। ऐसे में मैं इसे कदापि उचित नही समझता कि हर साल जब 30 मई आये तो हम बैठकर नई पीढ़ी को पत्रकारिता की मुश्किलें बताकर उसे डरायें।

बल्कि हमें चाहिये कि हम उन पत्रकारों को जो हमारे बाद इस क्षेत्र में आये हैं और अपना योगदान दे रहे हैं उन्हे उत्साहित करें। मुश्किलें हम 100 साल से गिना रहे हैं, सफलताओं और आदर्शों और तकनीक पर बात किये होते तो हिन्दी पत्रकारिता इससे बेहतर मुकाम पर होती। जहां तक हिन्दी पत्रकारिता की बात है तो इससे बेहतर अभिव्यक्ति का माध्यम कोई दूसरा नही हो सकता। समाज को निर्भीक और निष्प़क्ष पत्रकारिता का लाभ तभी होगा जब समाचार माध्यमों में प्रकाशित सामग्री को लोग सरलता से समझ लें और यह तभी संभव होगा जब प्रस्तुतिकरण का माध्यम हिन्दी हो। हिन्दी लोगों को आसानी से जोड़ लेती है ओर मन में उतर जाती है। हिन्दी का प्रवाह स्थायी और अविरल है। पत्रकारिता जितनी सशक्त होगी हिन्दी भी उतनी ही सशक्त होती जायेगी।

तब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर बहंस होती है तो लोग पत्रकारिता में आई गिरावट पर बहंस करना नही भूलते। वे शायद ये भूल जाते हैं कि हमारे समाज में जो गिरावट आई है उसका असर पत्रकारिता पर भी है। पत्रकार भी समाज का हिस्सा है और इस समाज ने उसे जो संस्कार और नैतिकता का पाठ पढ़ाया है वही लेकर वह पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गया है। यह समाज भी एक प्रयोगशाला है। यहां हर एक्शन के रिएक्शन होते हैं, हमने जो बोया है वही काटना है। हमें देश और समाज से उम्मीद करने से पहले ये सोचना होगा कि हम उसे क्या दे रहे हैं।

लोग कहते हैं पत्रकारिता समाज का दर्पण है, अर्थात समाचार माध्यमों में समाज का अक्श उभरता है जिससे हमें पता चलता है कि समाज किस दिशा में जा रहा है, किसको महत्व दिया जा रहा है और किसकी अनदेखी की जा रही है। तमाम गिरावटों और बदलावों के बावजूद समाज को आज भी पत्रकारों पर ही ज्यादा भरोसा है। कई बार लोगों को कहते हुये सुना जा सकता है मीडिया न होता तो क्या होता। हमारा कर्तव्य बनता है कि जो समाज हम पर इतना भरोसा करता है हम उसकी उम्मीदों पर खरा उतरें। पत्रकार बन्धुओं को यी ख्याल करना होगा कि समाचार माध्यम सिर्फ समाज का दर्पण नही हैं उसमें हमारी भी शक्लें, सोच और आचरण का प्रतिबिम्ब दिखता है।

इसलिये इस दर्पण से डरें और सोचें कहीं ऐसा तो नही कि इस दर्पण में आपकी शक्लें वीभत्स और सोच इस देश और समाज के लिये खतरानक दिख रही है। इतना चिंतन करेंगे तभी हम समाज को उचित दिशा में ले जा पायेंगे। लोग अक्सर बहंस करते हैं कि पत्रकारिता पूंजीपतियों के हाथों में खेल रही है, बल्कि यूं कहें कि पत्रकारिता पूंजीपतियों की गोद में जाकर बैठ गयी है। पहले जनता के लिये अखबार छपते थे अब किसी गुढे, माफिया, धन्नासेठ या फिर सफेदपोशों को संरक्षण देने के लिये छपते हैं। इसमें किसी का क्या दोष, चुनौतियां आई तो हम खुद जाकर उनकी गोद में अपना ठिकाना ढूढ़ने लगे।

जनता का पक्ष दरकिनार हो गया, जनसमस्यायें अखबारों से दूर हो गईं, इसकी जगह इश्तेहार ने ले लिया। सच्चाई ये है कि पत्रकारिता न कभी व्यापार थी और न व्यापार हो सकती है। पत्रकारिता का शब्द शब्द आन्दोलन है जिसमें भारत को फिर गुलाम होने से रोकने की ताकत है, जिसमें समाज के कमजोर लोगों की आवाज बनने का सामर्थ्य है। जो सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखता है। जरूरत इस बात की है कि हम तय करें हमें किसका पक्ष रखना है, किसे उत्साहित और किसे हतोत्साहित करना है। देश और समाज के लिये क्या जरूरी है और क्या गैर जरूरी।


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