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...ताकि हमे हमारे हिस्से की आज़ादी मिलती रहे

Posted on: Tue, 23, Apr 2019 10:29 AM (IST)
...ताकि हमे हमारे हिस्से की आज़ादी मिलती रहे

अशोक श्रीवास्तवः हम कितने आजाद हैं। हमारी आजादी की सीमायें कहां तक हैं। क्या हमारी आजादी दूसरे की आजादी छीन सकती है। देश को आज़ाद हुये 70 साल हो गये लेकिन जनता को इन सवालों का जवाब नहीं मिला। हमारा देश मुश्किल से आजाद हुआ, इसके पीछे क्या गंवाना पड़ा इतिहास के पन्नों में दर्ज है। लेकिन देश जब आजाद हुआ तो लोग यह बताना भूल गये कि हम कितने आजाद हैं। नतीजा ये है कि हम जब चाहते हैं तब दूसरों की आजादी छीन लेते हैं। नेताओं का रोडशो हो, जनसभायें हों या फिर विरोध प्रदर्शन, इससे पैदा होने वाली परेशानियों के बारे में हम कभी नहीं सोचते। सोचिये हर कोई इसी तरह दूसरे की आजादी छीनने लगे तो स्थितियां कैसी होंगी, जीना मुश्किल हो जायेगा। लोग अपनी हर तरह की सीमाओं को फैलाना शुरू कर देंगे। हमें इस विषय पर चर्चा इसलिये करनी पड़ रही है कि कल बस्ती लोकसभा सीट पर दो दिग्गज नेताओं के नामांकन जुलूस में उमड़ी भीड़ से शहर की सांसे थम गयीं थीं। हमने अपनी आंखों से शहर की हालत देखी थी। कहीं से भी निकल कर अपने मंजिल पर पहुंचने में राहगीरों को पसीना उतर गया।

जो जहां था वहीं फंस गया। स्कूली बच्चों, एम्बुलेंस में तड़प रहे मरीजों, रोजाना दफ्तर जाने वाले कारोबारियों और कर्मचारियों को जाम से पूरे दिन जूझना पड़ा। सैकड़ों गाड़ियों और करीब एक लाख से ज्यादा लोगों की भीड़ ने ट्राफिक व्यवस्था तहस नहस कर दिया। वैसे भी हम जिस शहर (बस्ती) में रहते हैं यहां ट्राफिक व्यवस्था नामकी कोई चीज नही है। आप कहीं भी किसी भी समय वाहनों को ले जा सकते हैं, न तो शहर में कहीं नो इण्ट्री लगती है और न ही वाहनों की पार्किंग का स्थान तय है। स्पीड लिमिट तो किसी को याद ही नही रहा। स्टंटबाजों का कोई जवाब नहीं, सावधान न रहे तो कमसे कम प्लास्टर तो चढ़ ही जायेगा।

इन सब चीजों और हालातों की मॉनीटरिंग करने वाला प्रशासन संवेदनहीन हो गया है। पूरी व्यवस्था को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। कहीं भी कभी भी कुछ भी हो सकता है। कल शहर में जाम देखकर मन में कई सवाल खड़े हो रहे थे, इतनी सारी गाड़ियों और पब्लिक को एक साथ, एक समय पर सड़क पर आने की इजाजत किसने दी, क्या उसे शहर के हालात नहीं मालूम हैं, कुल पांच किमी की सीमा में फैले इस छोटे से शहर में इतने सारे वाहनों और भीड़ का दबाव अचानक बढ़ेगा तो क्या होगा। क्या दोनो नेताओं के नामांकन के समय में दो से तीन घण्टे का अंतराल नही हो सकता था, क्या वाहनों को शहरी क्षेत्र में घुसने से रोकना नहीं चाहिये था।

कई बार ऐसा लगता है जैसे पूरी व्यवस्था को यूं ही छोड़ दिया गया हो। जो होना होगा हो जाये, जब होगा तब देखेंगे, अभी तो सबकुछ चल ही रहा है। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है ये। जब हो जायेगा तब क्या देखेंगे, अभी क्यों नहीं देखते। ऐसा क्यों नहीं करते वो होने ही न पाये। घटनाओं की पड़ताल तो आपकी डियूटी है, लेकिन घटनायें न हों, कोई दूसरे की आज़ादी न छीनने पाये ये आपकी संवेदनाओं जुड़ा है। जिसकी कमी सीधे प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े करती है। पूरा शहर टु लेन में बंटा है। कुछ साल पहले सिंगल रोड था, तब भी जाम लगता था, टु लेन हुआ तब भी जाम लगता है। व्यवस्था और मॉनीटरिंग इसी तरह की हो तो मेरा खयाल है कि शहर को फोर लेन में डिवाइड कर दीजिये तब भी जाम लगेगा, आखिर क्यों ?कब कब सहेंगे ये दुश्वारियां ?

जिस प्रकार प्रशासनिक संवेदनायें मर गयी हैं उसी तरह जनता की सोच भी बदलती जा रही है। झेल लेंगे, जो होगा देखा जायेगा, हम क्या की ही सकते हैं ?आवाज उठाने पर बेवजह निशाने पर होंगे, प्रशासन के भी और उनके भी जो हमारी आजादी छीनने में लगे हैं। यही जिंदगी है तो बर्दाश्त करो, भीड़ में शामिल हो जाओ, और जब अपने बीमार बाप को एम्बुलेंस में इलाज के लिये ले जाते हुये ऐसी ही किसी भीड़ में फंसना तो छाती पर बर्दाश्त कर लेना, और कर ही क्या सकते हो। जब बोलना था, आवाज उठाना था तब बोले नहीं, अब बोलकर क्या करोगे ? अब जाकर अपने बाप का अंतिम संस्कार करो।

हमें भलीभांति याद है। तकरीबन 15-20 साल पहले बस्ती से फैजाबाद जाने के लिये सिंगल रोड था। दो बड़े वाहनों के अगल बगल होने के बाद सड़क की पटरी नहीं बंचती थी, उस वक्त भी बड़ी लोग बड़ी संख्या में कांवर लेकर जाते थे। बस्ती से फैजाबाद के बीच में लाखों लोग सड़क पर आ जाते हैं। तीन दिन के लिये ट्राफिक रोक दी जाती है। इससे कितना नुकसान होता है, कितनी दुश्वारियां पैदा होती है, इस पर सोचने को कोई तैयार नहीं है। सिंगल रोड थी तब भी कांवरियों से भर जाती थी, टु लेन हुई तब भी लगता रहा, अब फोर लेन है तब भी जाम लग जाता है।

व्यवस्था तय करते समय ये क्यों नही सोच लेते कि आज भी मान लिया टु लेन है, और टु लेन कांवरियों को अलॉट कर देते और टु लेन वाहनों को। पूरी व्यवस्था पूर्व की भांति चलती रहती। एक बार हमने यही बात एक बड़े अधिकारी से की। जवाब मिलर कि तो कांवरिये वाहनों की तोड़फोड कर देते हैं। इस जवाब से भी कई सवाल पैदा हो गये। क्या इतनी भारी संख्या में भीड़ सड़क पर आ जाये तो प्रशासन को सरेंडर कर देना चाहिय ? कुल मिलाकर स्थितियां विकट हैं, स्थानीय प्रशासन को ऐसे मौकों पर तय करना होगा कि ये शहर चलता रहे, लोग सांस लेते रहें, और हमे हमारे हिस्से की आजादी मिलती रहे।


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