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भारत एक कृषि प्रधान देश था !

Posted on: Thu, 07, Jun 2018 10:35 PM (IST)
भारत एक कृषि प्रधान देश था !

अशोक श्रीवास्तवः भारत एक कृषि प्रधान था। हालांकि हम प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ते थे तो हमें पढ़ाया गया था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। लेकिन इन चार दशकों में देश इतना बदल गया कि अब सच को झुठलाना मुश्किल हो रहा है। जहां भुखमरी से पीड़ित और कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या को मजबूर हो, नगदी फसलों का करोडों रूपया सरकार पर बकाया हो, आजादी के 70 सालों बाद अनाज के भण्डारण व सिंचाई का उत्तम प्रबंध न हो, अतिबृष्टि और अनाबिष्ट की चिंता खाये जा रही हो, पूरे देश के लिये भोजन का प्रबंध करने वाले अन्नदाता के सामने बेटी का हाथ पीले करने और बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाने की चुनौतियां हों, वहां भारत एक कृषि प्रधान देश था कहने में कोई गुरेज नहीं।

जाहिर है ये किसी कृषि प्रधान देश के लक्षण नहीं हो सकते। विकास के तमाम दावे किये जा रहे हैं, किसान बिचौलियों के हाथों गेहूं बेंचने को मजबूर है, तालाबों में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं, नहरे सूखी हैं, नलकूप 80 फीसदी खराब पड़े हैं, जो चल रहे हैं वहां खेतों तक पानी ले जाने को नाली ही नही है। ये ऐसी सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता, लेकिन इनकी अनदेखी कर जनता को केवल गुमराह किया जा रहा है।

सरकार 2013 से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है. जानकारी के मुताबिक हर साल 12 हजार किसान अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं. कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। बकाये का भुगतान समय से नही हो रहा है। सरकार आंकड़ों की माने तो 2015 में कुल 12,602 किसानों ने आत्महत्या की। 2015 में सबसे ज्यादा 4,291 किसानों ने महाराष्ट्र में आत्महत्या की जबकि 1,569 आत्महत्याओं के साथ कर्नाटक इस मामले में दूसरे स्थान पर रहा है. इसके बाद तेलंगाना (1400), मध्य प्रदेश (1,290), छत्तीसगढ़ (954), आंध्र प्रदेश (916) और तमिलनाडु (606) का स्थान आता है।

भारत उन विकासशील देशों में से है जिनकी जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषि पर निर्भर है। इसी कारण दुनिया के नक्शे पर भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है। लेकिन यहां किसानों की हालत किसी से छिपी नही है। किसान को गरीब का पर्यायवाची कहा जाये तो अनुचित न होगा। देश का इतना विकास हुआ लेकिन 70 सालों में किसानों की हालत नही बदली। किसान गरीब था, है और रहेगा, क्योंकि उसकी सम्पन्नता के लिये काम नही हो रहा है, सरकारी नीतियां पर्याप्त नही हैं। तमाम आयोग बने लेकिन किसान आयोग नही बना। तपती धूप में धरती का सीना चीरकर अन्न उगाने वाले किसानों के लिये वातानुकूलित कमरों में बैठने वाले नीतियां बनाते हैं। पकी हुई फसलों के संग्रहण और बिक्री तक स्पष्ट व पारदर्शी नीतियां नही हैं, शायद यही कारण है कि आलू उगाने वाला किसान आत्महत्या कर रहे हैं और इसी आलू से चिप्स बनाने वाली कम्पनियां चांदी काट रही हैं।

कृषि शिक्षा का अभाव, भूमि प्रबंध की पर्याप्त जानकारी का अभाव, भू अधिग्रहण नीतियों में कमियों, ऋण का लाभ छोटे किसानों तक न पहुंचने के कारण किसान बदहाली से गुजर रहा है। कोई भी दल या नेता सत्ता में आने के लिये दो बात जरूर करता है, एक गरीबों का जीवन स्तर ऊपर उठाने की, दूसरा किसानों के चेहरों पर मुस्कराहट लाने की। दोनो बातें सिर्फ चुनाव जीतने के लिये। जैसे ही वह चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाता है, गरीब और किसान दोनो हाशिये पर आ जाते हैं, सारी नीतियां बड़े बड़े उद्योगपतियों के लिये बनती हैं, उनकी आय में दिन दूना रात चौगुना वृद्धि कैसे हो सरकारें इसमें पूरी ताकत लगा देती हैं, शायद इसलिये किसान सम्पन्न होगा तो उन्हे हिस्सेदारी नहीं मिलेगी लेकिन उद्योगपति सम्पन्न होगा तो छिपे हुये समझौते के तहत राजनीतिक दल और नेताओं की भी तिजोरी भर जायेगी।

वर्तमान में देश में चीनी मिलें धड़ाघड़ बंद हो रही हैं, गन्ने का हजारों करोड़ बकाया है, चीनी विदेश से आयात की जा रही है, किसान ब्याज देते मर रहा है और उसका गन्ना बकाया बगैर ब्याज के भी नहीं मिल रहा है। किसानों की अय दोगुनी करने का सपना दिखाकर उसे तिल तिल मरने को मजबूर किया जा रहा है। बेहतर होता अगर किसानों की दशो सुधारने की नीतियां बनाते, उसके फसलों का सही दाम मिले इसका प्रबंध करते, भण्डारण की व्यवस्था प्रदान करते, जिससे वह चिंता से उबर पाता और दोगुनी मेहनत कर खुद अपनी आय दो गुनी कर लेता।


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