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‘न्याय मिलने में देरी अन्याय है‘

Posted on: Mon, 10, Jun 2019 2:12 PM (IST)
‘न्याय मिलने में देरी अन्याय है‘

अंग्रेजी की कहवात है ‘जस्टिस इज़ लेट, जस्टिस इज़ डिनाइड‘। न्याय मिलने में देरी अन्याय है। अधिंकाश मामलों में न्याय हाशिये पर आ जाता है। अपराधों पर नियंत्रण न हो पाने का यह एक खास कारण है। आश्चर्य की बात ये है कि जमीन जायजाद के मुकदमें 20-25 साल तक चलते रहते हैं।

यहां तक कि आपराधिक मामलों में भी सजा मिलने में काफी वक्त लग जाता है। खास तौर से महिलाओं या मासूम बच्च्यिं के साथ हो रहे दुराचार के मामलों में जो संवेदीनहीनता बरती जा रही है चिंताजनक है। कानून का पालन ठीक ढंग से तब तक संभव नही होता जब तक लोगों में कानून का खौफ न हो। न्याय मिलने में देरी से न कानून का खौफ रह जाता है और न ही पीड़ित को तसल्ली मिलती है। क्या 20-25साल तक मुकदमों का न्यायालयों में लम्बित रहना उचित है। माना यही जाता है कि इमनी लम्बी अवधि तक चलने वाले मुकदमों में सारा वक्त सच को झूठ साबित करने में लग जाता है। मुकदमों का समयबद्ध निस्तारण होने लगे तो अदालतों और न्यायिक प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा मजबूत होगा। देखा जाये तो कोर्ट में अनेक मुकदमें ऐसे लम्बित हैं जिनमे कोई दम नही है।

बस बेवजह दूसरे पक्ष ने परेशान करने करने के लिये मुकदमा ठोंक दिया है और तारीख पर तारीख कस सिलसिला चल पड़ा है। वकील से लेकर फरीक तक सभी जानते हैं कि वह गलत है जिसके लिये वह लड़ रहा है उस पर उसका हक नही है बावजूद इसके तारीखें पड़ रही हैं। मकसद सिर्फ दुश्मन को आर्थिक और मानसिक रूप से इतना कमजोर कर देना है कि वह सुलह सपाटे पर राज़ी हो जाये या फिर थक हार कर बैठ जाये। बड़े बुजुर्गो नें पहले ही कहावत बना रखी है सम्पत्ति जाते देख बांट लेना चाहिये। अनेक मामलों में ऐसा होता है। सम्पत्ति विवाद में 25 सालों तक आखिर किस बात का परीक्षण किया जाता है।

जो फैसले 25 साल में सुनाये जा रहे हैं वे साल भीतर भी सुनाये जा सकते हैं। शायद ऐसा इसलिये नही होता क्योंकि सच को झूठ साबित करने के लिये यह वक्त पर्याप्त नही है। जब अदालतों में सच को साजिश के तहत झूठ में बदल दिया जाता है तो वहीं कुण्ठा जन्म लेती है। थका हारा आदमी कभी खुद को तो कभी सामने वाले को सजा देने के लिये खौफनाक कदम उठा लेता है। बहुत स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि न्याय मिलने में देरी लॉ एण्ड ऑर्डर मेन्टेन करने में सबसे बड़ी बाधा है। आपराधिक मामलों की बात करें तो समाज से नैतिकता एकदम से गायब हो रही है, दो ढाई साल की मासूम बच्चियों को दरिंदे गीध की तरह नोच रहे हैं।

कई घटनायें ऐसी सामने आई हैं कि मां के बगल में सो रही बच्ची को दरिंदे उठा ले गये और हैवानियत को अंजाम दिया। हतप्रभ करने वाली बात है कि ऐसे मामलों के निस्तारण में भी कम से कम 10 साल का वक्त लग रहा है जबकि महिला उत्पीड़न और दुष्कर्म से जुड़े मामलों के समयबद्ध निस्तारण की सरकार ने व्यवस्था की है। ऐसे मामलों में फैसले 6 माह में ही आ जाने चाहिये, लेकिन एक दो मालों को छोड़कर कोई फैसला 6 महीने में नही आया। क्या यह समझा जाये कि जानबूझकर तथ्यों को कमजोर करने, गवाहों को डराने धमकाने और पीड़ित को आर्थिक और मानसिक तौर पर उत्पीड़न के उद्देश्य से मामले को लटकाया जाता है। हमारा मानना है कि कड़े कानून बनाकर और मुकदमों का अदालतों में समयबद्ध निस्तारण कर अपराधों में कमी लाई जा सकती है।

इसके लिये अधिवक्ताओं से लेकर सरकार और माननीय न्यायालयों तक को गंभीरता से विचार करना होगा। कानून का खौफ पैदा करके ही अपराधों में कमी लाई जा सकती है। इसका और दूसरा कोई फार्मूला नही हो सकता। समाज में बहशी दरिंदे जब तक हैं तब तक अपराध होते रहेंगे। समाज सुधरे, लोगों की सोच बदले और लोग भारत की मूल आत्मा को समझें इसके लिये लम्बी अवधि तक प्रयास करने होंगे और यह सतत चलने वाली एक प्रक्रिया है लेकिन आपराधिक मामलों में ताबड़तोड़ फैसले आने लगें तो जघन्य अपराधों को अंजाम देते वक्त एक बार रूह कांप जायेगी। धीरे धीरे अपराध अपने आप कम होते जायेंगे।


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