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लोकतंत्र या लूट तंत्र ?

Posted on: Tue, 05, Jun 2018 8:44 PM (IST)
लोकतंत्र या लूट तंत्र ?

अशोक श्रीवास्तवः अभी हाल में हमे एक ऐसी जानकारी हाथ लगी है जिसे सुनकर आपका दिमाग सटक जायेगा। देश की आजादी के 70 साल बाद भी ऐसी कई जानकारियां आम जनता को नहीं हुईं, वरना सियासत के दम पर खुद को शक्तिमान समझने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों को इसका सबक मिल गया होता। आपको भी जानकर हैरत होगी कि यह सब कुछ एक ऐसे देश में कैसे चल रहा है जहां जनता इतनी जागरूक है और उसके हाथ में सूचना का अधिकार जैसा हथियार है। ऐसी कई जानकारियां हासिल होने के बाद हर कोई यह कहने को मजबूर हो जायेगा कि देश की आजादी के बाद कुछ राजनीतिक दल गिरोह की शक्ल में अस्तित्व में आये और उन्होने जनता को जिस लोकतंत्र का सपना दिखाया वह असल में लूट तंत्र है जहां लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में बैठकर देश की जनता के हित में कानून बनाने की बात कही गयी थी वहां जनता को तरह तरह से लूटने की योजनायें तैयार की जा रही हैं।

हमें जो ताजा जानकारी मिली है उसके अनुसार कोई नेता अपने राजनैतिक जीवन में यदि विधान परिषद सदस्य निर्वाचित होता है और बाद में फिर विधायक का भी चुनाव जीत जाता है, पुनः चुनाव लड़ने पर वह सांसद के रूप में निर्वाचित होकर देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंच जाता है तो उसे तीनों की पेंशन मिलेगी। आप इस जानकारी पर ठहाके लगा सकते हैं, या फिर अपने सिर के बाल भी नोंच सकते हैं। सवाल ये है कि एक व्यक्ति की नियुक्ति क्लर्क पर हो, प्रमोशन पाकर वह मैनेजर हो जाये और बाद में सीईओ बन जाये तो उसे तीनों पदों की तनख्वाह मिलेगी।

हमें पहली बार देश के जाने माने पत्रकार रवीश कुमार के एक वीडियो से हुई तो मेरा भी दिमाग सटक गया और हमने अहसास किया है कि देश की सवा सौ करोड़ जनता निहायत मूर्ख है और मुट्ठी भर लोग इतने चालाक हैं कि वे जनता को ठगने के रोजाना नये तरीके इज़ाद कर लेते हैं। यही कारण है कि जनता जिन परेशानियों का सामना 70 साल पहले कर रही थी वही परेशानी आज भी है। उसके सामने आत्मनिर्भरता, भ्रष्टाचार, सुरक्षा, आर्थिक असमानता, सामाजिक सुरक्षा की चुनौतियां तब भी थीं आज भी हैं।

इतना ही नहीं ये राजनीतिक दल इतने चालाक और नेता इतने शातिर है कि ऐसे मुद्दों पर सदन में एक शब्द नही बोलते। नतीजा ये है कि साल छः महीने राजनीति में किसी पद पर रहने वाला अपना जीवन स्तर बदल लेता है, उसके पास गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेंस सबकुछ हो जाता है और आम आदमी हाड़ तोड़ मेहनत करने के बावजूद अपने परिवार को बेहतर जीवन नही दे पाता। यदि कोई नया व्यक्ति या राजनीतिक दल वैचारिक ताकत से राजनीति के क्षेत्र में आना चाहता है तो उसके लिये सारे रास्ते बंद हैं या फिर उसके सामने इतनी चुनौतियां खड़ी कर दी जायेंगी कि आगाज़ से पहले ही उसका अंत हो जायेगा। एक छोटे से व्यापारी या गैर सरकारी संगठन चलाने वाले को पाई पाई का हिसाब देना होता है, यहां तक कि लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया भी आय व्यय का पूरा व्योरा देता है।

लेकिन राजनीतिक दलों की बात करें तो करोड़ों रूपया उनके खातों में चंदे का आता है, इसका कोई हिसाब नहीं। इतना ही नही देश की जनता के हाथ में जब एक महत्वपूर्ण हथियार आरटीआई आया तो इससे भी बंचने का रास्ता राजनीतिक दलों ने निकाल लिया, कहा राजनीतिक दल इससे बाहर रहेंगे। बात हैरान करने वाली है, ये कैसा लोकतंत्र है जहां लोक हाशिये पर है और तंत्र एक गिरोह में तब्दील हो चुका है। बेहतर होगा कि राजनीतिक दल भी आरटीआई के दायरे में आयें और यदि किसी नेता के जीवन में एक से ज्यादा पदों पर निर्वाचित होने का अवसर आये तो उसे केवल एक ही पद का पेंशन मिले, ऐसी स्थिति में जो धनराशि ज्यादा हो उसका विकल्प अपनाया जा सकता है। वरना जनता के दिमाग पर जिस दिन ये सब बातें चढ़ जायेंगी उस दिन नेताओं और राजनीतिक दलों को भागने और सिर छिपाने की जगह नही मिलेगी।


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